भाषा : स्वरूप प्रकृति एवं विशेषताएँ

 भाषा : स्वरूप प्रकृति एवं विशेषताएँ



डॉ. श्यामसुंदर दास - " अपने व्यापक अर्थ में भाषा के अंतर्गत विचारों और भावों को सूचित करने वाले वे सारे संकेत आते हैं, जो देखे और सुने जा सकते हैं तथा इच्छा अनुसार उत्पन्न एवं दोहराए जा सकते हैं।"


डॉ. बाबूराम सक्सेना - "जिन ध्वनि चिह्नों द्वारा मनुष्य परस्पर विचार-विनिमय करता है, उसको समष्टि रूप से भाषा कहते हैं।"


स्वीट- "ध्वन्यात्मक शब्दों द्वारा विचारों का प्रकटीकरण ही भाषा है।"


जेस्पर्सन - "मनुष्य ध्वन्यात्मक शब्दों द्वारा अपना विचार प्रकट करता है। मानव मस्तिष्क वस्तुतः विचार प्रकट करने के लिए ऐसे शब्दों का निरन्तर प्रयोग करता है। इस प्रकार के कार्यकलाप को ही भाषा की संज्ञा दी जाती है।"


वान्द्रिए - " भाषा एक प्रकार का चिह्न है। चिह्न से तात्पर्य उन प्रतीकों से है जिनके द्वारा मनुष्य अपना विचार दूसरों पर प्रकट करता है। ये प्रतीक भी कई प्रकार के होते हैं, जैसे नत्रग्राह्य, श्रोतग्राह्य एवं स्पर्शग्राह्य । वस्तुतः भाषा की दृष्टि से श्रोतग्राह्य प्रतीक ही सर्वश्रेष्ठ है।"


सुकुमार सेन - "अर्थवान् कण्टोदीर्ण ध्वनि-समष्टि ही भाषा है।" क्रोंचे - "भाषा अभिव्यक्ति की दृष्टि से उच्चरित एवं सीमित ध्वनियों का संगठन है।" इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका में भाषा की परिभाषा निम्न प्रकार दी गयी है-


"भाषा यादृच्छिक मौखिक प्रतीकों की व्यवस्था है, जिसके द्वारा मनुष्य समाज एवं सस्कृति के सदस्य होने के नाते परस्पर विचारों एवं कार्यों का आदान-प्रदान करते हैं।" इस परिभाषा में भाषा की प्रकति एवं उसकी उपयोगिता का भी समावेश हो जाता है।


डॉ. भोलानाथ तिवारी ने भाषा में अन्तर्भूत सभी लक्षणों का ध्यान रखते हुए निम्नांकित परिभाषा प्रस्तुत की है-


"भाषा निश्चित प्रयत्न के फलस्वरूप मनुष्य के मुख से निःसृत वह सार्थक ध्वनि समष्टि है, जिसका


विश्लेषण और अध्ययन हो सके।"


भाषा शब्द की व्युत्पत्ति 'भाष्' धातु से हुई है।


भाषा शब्द स्त्रीलिंग का बोधक है।


भाषा वह साधन है जिसके द्वारा हम अपने भावों या विचारों को दूसरों पर प्रकट करते हैं और दूसरों के भावों अथवा विचारों को समझते हैं। अर्थात् विचार-विनिमय के वाचिक साधन को भाषा कहते हैं। मनुष्य अपने भाव या विचार तीन प्रकार से प्रकट करता है- (1) बोलकर (2) लिखकर (3) संकेतों के द्वारा।


1. बोलकर - वक्ता बोलकर अपने विचारों को व्यक्त करता है और श्रोता उसे कानों से सुनकर समझता है। भाषा का यह रूप मौखिक कहलाता है।


जैसे - भाषण देना, वार्तालाप के द्वारा विचार प्रकट करना।


2. लिखकर - विचारों और भावों को जब लिखकर प्रकट किया जाता है तो वह भाषा का लिखित रूप


कहलाता है। जैसे- पत्र लेखन, निबन्ध लेखन, पुस्तकों एवं पत्र-पत्रिकाओं में लेख द्वारा विचार प्रकट करना आदि लिखित भाषा के अन्तर्गत आते हैं।


3.


सांकेतिक रूप- जब हम अपने भाव या विचार संकेतों द्वारा प्रकट करते हैं, उसे भाषा का सांकेतिक रूप कहते हैं। जैसे - सिर हिलाना, झण्डी दिखाना, बुलाने या नहीं बुलाने के लिए हाथ का संकेत करना तथा आँखों ही आँखों में बातें करना।


बोली - भाषा का क्षेत्रीय रूप बोली कहलाता है। भाषा के अन्तर्गत कई बोलियाँ होती है। बोली का क्षेत्र अपेक्षाकृत छोटा होता है और भाषा का बड़ा। जैसे - हिंदी के अन्तर्गत खड़ी बोली, ब्रज, अवधी, भोजपुरी आदि बोलियाँ हैं।


लिपि - भाषा के लिखित रूप के लिए जिन ध्वनि चिह्नों का प्रयोग किया जाता है, उन्हें लिपि कहते हैं। जैसे - हिंदी, संस्कृत, मराठी, नेपाली, कोंकणी भाषाओं की लिपि देवनागरी है।


ब्राहमी लिपि - बाँये से दाँये ओर (भारत)


खरोष्ठी लिपि - दाँये से बाँये ओर (बाहर से आई)


देवनागरी लिपि - मिश्रित रूप


चित्राक्षरी लिपि - चित्र प्रधान


विशेष - हिंदी और संस्कृत भाषा की लिपि देवनागरी है जिसे अर्द्धमागधी के नाम से भी जानते हैं।


पंजाबी गुरुमुखी अंगरेजी फ्रेंच


जर्मन रोमन उर्दू, अरबी फ़ारसी


सामान्य दृष्टि से "भाषा वह साधन है जिसके द्वारा एक प्राणी दूसरे प्राणी पर अपने विचार, भाव या इच्छा


प्रकट करता है।" इस दृष्टि से भावाभिव्यक्ति के समस्त साधन-आंगिक या इंगित भाषा, जैसे हाथ या सिर द्वारा


संकेत, भूविकार या भावव्यंजक मुख मुद्राएँ, चिह्न-भाषा जैसे स्काउटों, सैनिकों या नाविकों द्वारा झण्डों के संकेत


आदि-भाषा के अन्तर्गत आ सकते हैं। यही नहीं, पशु-पक्षी की ध्वनियाँ भी भाषा मानी जा सकती हैं। पक्षी


भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न प्रकार की ध्वनियाँ करते हैं और उनका समुदाय इन ध्वनि-संकेतों को


समझ लेता है। आहार, मैथुन, युयुत्सा, संतान-रक्षा, यूथ-संपर्क आदि के लिए पशुओं को ध्वनि-संकेतों का


प्रयोग करते हुए देखा जाता है। प्रसिद्ध आखेटक जिम कार्बेट ने लिखा है कि प्रत्येक जाति के पशुओं की अपनी


भाषा होती है, इस भाषा को अन्य जातियों के पशु भी समझ लेते हैं और जंगल में रहकर मनुष्य भी पशुओं के


ध्वनि-संकेतों के सहारे उनकी गतिविधि का पता लगा सकते हैं।


उपर्युक्त संकेतों को हम भाषा कह सकते हैं एवं भावाभिव्यक्ति की दृष्टि से वे साधन अत्यन्त अपूर्ण एवं अस्पष्ट सिद्ध होते हैं। अतः, इन्हें भाषा की संज्ञा नहीं दी जाती। मनुष्य अपने भावों, विचारों एवं अनुभूतियों को भलीभाँति केवल ध्वनि-संकेतों के माध्यम से ही प्रकट कर सकता है। अतः मनुष्य के ध्वनि-अवयवों से निःसृत ध्वनियाँ ही भाषा के अन्तर्गत आती हैं। इतना ही नहीं, बल्कि ये ध्वनियाँ सार्थक होनी चाहिए जिससे उनका विश्लेषण और अध्ययन हो सके। निर्रथक ध्वनियाँ भाषा के अन्तर्गत नहीं आतीं। यहाँ तक कि शोक, विस्मय एवं हर्ष व्यंजक सांवेगिक ध्वनियों पर भी भाषा की दृष्टि से विचार नहीं किया जाता। इस दृष्टि से कुछ भाषाविदों द्वारा प्रस्तुत भाषा की परिभाषाएँ नीचे लिखी जा रही हैं-


भाषा की प्रकृति


ब्लाक तथा ट्रेगर ने भाषा की प्रकृति की दृष्टि से भाषा की जो परिभाषा प्रस्तुत की है वह बहुत कुछ इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका में दी गई परिभाषा के ही समान है। इस परिभाषा से भाषा की प्रकृति सम्बन्धी विशेषताएँ स्वतः स्पष्ट हो जाती हैं। उनके अनुसार "भाषा यादृच्छिक मौखिक प्रतीकों की व्यवस्था है जिसके द्वारा उस भाषाई समुदाय के लोग परस्पर विचारों का आदान-प्रदान एवं सहयोग करते हैं।"


इस परिभाषा में भाषा सम्बन्धी पाँच बातें हैं-


1. भाषा एक व्यवस्था है।


2. भाषा प्रतीकों की व्यवस्था है।


3. ये प्रतीक मौखिक अथवा वाचिक हैं।


4. ये प्रतीक यादृच्छिक हैं।


5. भाषा परस्पर विचार-विनिमय एवं सामाजिक क्रियाकलाप का साधन है।


इन पाँच बातों में प्रथम चार का सम्बन्ध भाषा की रचना एवं उसमें अंतर्भूत तत्त्वों से है और पाँचवीं बात का सम्बन्ध भाषा की व्यावहारिक उपयोगिता एवं उसके महत्त्व से है। भाषा-शिक्षण की दृष्टि से इन पर पृथक्- पृथक् विचार कर लेना अधिक समीचीन होगा।


1. भाषा एक व्यवस्था है- किसी भी भाषा के स्वरूप पर विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि भाषा एक व्यवस्था है, वह एक संगठन है। अपनी प्रारम्भिक अवस्था में भाषा अपेक्षाकृत कुछ अव्यवस्थित रही होगी किन्तु उत्तरोत्तर विकास करती हुई वह अधिकाधिक व्यवस्थित और नियमित होती जा रही है।


भाषा के विधायक तत्त्वों अथवा उसके विविध अवयवों पर दृष्टिपात करने से स्पष्ट हो जाता है कि भाषा एक व्यवस्था है। "वह क्रमोच्चारित विभिन्न ध्वनियों की श्रृंखलाबद्ध रचना है।" भाषा की इस प्रकृति को हम संक्षेप में इस प्रकार समझ सकते हैं-


(i) भाषा का मूल तत्त्व ध्वनि है। प्रत्येक भाषा में कुछ मूल ध्वनियाँ मान्य हैं और उन ध्वनियों की भी एक मान्य व्यवस्था है; जैसे - स्वर, व्यंजन, संयुक्त स्वर और व्यंजन, ध्वनियों के उच्चरित एवं लिखित रूप आदि।


(ii) किन्तु ये ध्वनियाँ ही भाषा नहीं हैं। पृथक् पृथक् ध्वनि का कोई अर्थ नहीं। कुछ ध्वनियाँ मिलकर जब शब्द का निर्माण करती। तब वे सार्थक सिद्ध होती हैं क्योंकि शब्द ही किसी वस्तु, भाव या विचार का प्रतीक होता है। फिर शब्द के रूप, रचना, अर्थ एवं प्रयोग की भी एक व्यवस्था बन जाती है।


(iii) किन्तु एकाकी शब्द से भी हमारा आशय नहीं प्रकट होता और स्पष्ट अभिव्यक्ति के लिए अनेक शब्दों को मिलाकर वाक्य का निर्माण करना होता है। प्रत्येक भाषा में वाक्य संरचना या गठन की अपनी व्यवस्था है। उदाहरणत: हिंदी वाक्य-रचना में शब्दों का जो क्रम है। वह अंग्रेजी वाक्य-रचना में नहीं है।


(iv) भावाभिव्यक्ति की दृष्टि से वाक्य यद्यपि भाषा की इकाई माना जाता है पर जब वाक्य से पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं हो पाती तो अनेक वाक्यों को मिलाकर अनुच्छेद का निर्माण करना पड़ता है और एक या अनेक अनुच्छेदों से हम अपना पूरा आशय प्रकट करते हैं। इस प्रकार भाषा का आकार या ढाँचा वृहत् रूप धारण करता जाता है। यह आकार या ढाँचा ही भाषा की व्यवस्था का परिचायक है।


उपर्युक्त विवरण के आधार पर हम कह सकते हैं कि भाषा विभिन्न पदों का क्रमबद्ध रूप है जिसमें पद परस्पर अन्वय और सम्बन्ध से युक्त रहते हैं। ध्वनि, शब्द, पद और पदबंध, वाक्यांश, वाक्य और अनुच्छेद इन स्तरों पर भाषा की संरचना फैली रहती है। इसी कारण भाषा को उप-व्यवस्थाओं की व्यवस्था (System of subsystems) कहा जाता है।


कुछ भाषाशास्त्रियों ने व्यवस्था के अन्तर्गत व्यवस्था के आधार पर भाषा को 'परस्पर संबद्ध अवयवों से युक्त संश्लिष्ट व्यवस्था' भी कहा है। ये परस्पर संबद्ध अवयव ध्वनि, शब्द, पदबन्ध, वाक्यांश, वाक्य आदि ही हैं। भाषा के शब्दों से अर्थबोध होता है। शब्दात्मक संरचना में अर्थ संरचना निहित रहती है। इसलिए भाषा को व्यवस्थाओं का संयुक्त रूप (इंटरलाक्ड) कहा जाता है।


भाषा शिक्षण में हमें भाषा के इस संरचनात्मक या व्यवस्था पक्ष का भली-भाँति ध्यान रखना चाहिए और उसके विविध अवयवों में से किसी की भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए अन्यथा भाषा की अपेक्षित कुशलता प्राप्त नहीं हो पाती।


2. भाषा प्रतीकों की व्यवस्था है- शब्दों से भाषा का निर्माण होता है और ये शब्द किसी पदार्थ, भाव, विचार, अनुभूति आदि के ध्वन्यात्मक संकेत या प्रतीक हैं। हम कह सकते हैं कि किसी वस्तु या विचार को प्रकट करने के लिए उनके प्रतीक रूप से शब्द का प्रयोग किया जाता है। फिर परम्परागत प्रचलन के कारण शब्द और तनिहित अर्थ (तत्सम्बन्धी वस्तु, भाव या विचार) इतने संपृक्त हो जाते हैं कि शब्द (प्रतीक) मात्र को सुनते ही तत्सम्बन्धी वस्तु, भाव या विचार का प्रत्यक्षीकरण हमारे मनस्पटल पर हो जाता है। इन प्रतीकों के अभाव में सृष्टि के किसी भी पदार्थ-गोचर या अगोचर, जड़ या चेतन, का प्रत्यक्षीकरण संभव नहीं। 'देखिय रूप नाम अधीना, रूप ज्ञान नाहिं नाम विहीना' में तुलसीदास ने 'नाम' का प्रयोग इन शब्द-प्रतीकों के लिए ही किया है। ये प्रतीक किसी न किसी वस्तु के नामकरण ही तो हैं जिनके माध्यम से एक व्यक्ति अपनी उत्तेजना को दूसरे व्यक्ति में संचारित करके प्रतिक्रिया उत्पन्न करने में समर्थ होता है। इन प्रतीकों को ही क्रामायोजित करके हम अपना आशय प्रकट करते हैं। अतः, भाषा को प्रतीकों की व्यवस्था कहा गया है।


3. ये प्रतीक मौखिक हैं- जिन प्रतीकों से भाषा का निर्माण होता है, मूलतः वे माखिक प्रतीक हैं। ये प्रतीक मनष्य के मख से निसत ध्वनिसमुहों से निर्मित होते हैं। प्रतीक तीन प्रकार के हो सकते हैं - 'स्पर्शग्राह्य' (चोरों का परस्पर हाथ दबाकर संकेत करना, ताली बजाना आदि), चक्षुग्राह्य (चित्र, झंडा, ट्रेफिक लाइट, सिगनल आदि), और श्रोतग्राह्य। पर पल श्रीजग्राह्य प्रतीक अर्थात् मनुष्य के उच्चारणावयवों से निसृत ध्वनि- समष्टि को ही भाषा की संज्ञा प्रदान की जाती है। इसलिए ढोल पीटना, बिगुल बजाना, घंटा बजाना, साइनर का साटी आदि ध्वनिगों श्रव्य होते हुए भी भाषा के अन्तर्गत नहीं मानी जाती। इसी प्रकार सावंगिक ध्वनियाँ जैसे कराहना, रुदन-क्रंदन, हर्ष-विस्मय आदि का भी कोई प्रतीकात्मक मूल्य नहीं है क्योंकि वे स्वयं से बाहर किसी वस्तु या विचार के प्रतीक नहीं।


भाषा के लिखित रूप मौखिक प्रतीकों का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। यह लिखत कर पुन: पठन एवं श्रवण प्रक्रिया के द्वारा मौखिक एवं श्रोत्रग्राह्य बन जाता है। फिर संसार अनेक भाषाएँ ऐसी हैं जिनका केवल मौखिक रूप है, लिखित रूप नहीं। अतः भाषा की उच्चरित रूप ही उसका मूल रूप है। वस्तुतः 'भाषा% शब्द स्वतः मनुष्य की वाचिक भाग का ही द्योतक है। भाषा विज्ञान में भी मुख्यतः वाचिक भाषा का ही अध्ययन और विश्लेषण होता है। अतः भाषा निश्चित रूप से उच्चारण सापेक्ष है।।


4. भाषायी प्रतीक यादृच्छिक हैं- भाषा में प्रयुक्त प्रतीक (शब्द) सार्थक तो होते हैं पर उनसे बोधित वस्तु, भाव या विचार (अर्थ) से उनका कोई सहजात या ईश्वरीय सम्बन्ध नहीं होता। यह सम्बन्ध यादृच्छिक या माना हुआ होता है। शब्द और अर्थ में कोई तर्क संगत सम्बन्ध नहीं है। पर यह सही है कि शब्द और अर्थ का सम्बन्ध तर्क और विवेक पर आधारित न होने पर भी प्रयोग, व्यवहार एवं दीर्घकालीन प्रचलन के कारण इतना प्रगाढ़ हो जाता है कि वह सहजात या स्वाभाविक लगने लगता है। वस्तुतः भाषा के प्रतीक या ध्वनि-संकेत रूढ़- अर्थ विशेष में प्रसिद्ध होते हैं। यह रूढ़ि परम्परागत प्रचलन से बन जाती है फिर शब्द और अर्थ का रूढ़ अर्थ हम बिना तर्क या कारण मानते चलते हैं। तभी तो तुलसीदास ने 'गिरा अर्थ जल बीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न' लिखा है। पर यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि शब्द और अर्थ का सम्बन्ध यादृच्छिक ही है। यह  सम्बन्ध यदि सहजात, स्वाभाविक या तर्कसम्मत होता तो सभी भाषाओं में एक वस्तु, भाव या विचार के लिए


एक ही प्रतीक (शब्द) का प्रयोग होता। पर ऐसा नहीं है। एक ही पशु के लिए विभिन्न भाषाओं में विभिन्न शब्द


हैं। कुत्ते सारे संसार में प्रायः एक-सा भोंकते हैं या घोड़े एक-सा हिनहिनाते हैं पर कुत्ते के भौंकने और घोड़े के


हिनहिनाने के लिए भिन्न-भिन्न भाषाओं में भिन्न-भिन्न ध्वनि-संकेतों का प्रचलन है। यदि ये प्रतीक (शब्द)


किसी विशिष्ट अर्थ के लिए माने हुए अथवा यादृच्छिक नहीं होते तो संसार की सभी भाषाएँ प्रायः एक-सी


होतीं।


5. भाषा समाज सापेक्ष है- भाषा एक सामाजिक प्रक्रिया है। समाज में ही उसका उद्भव, पल्लवन और विकास होता है। यद्यपि समाजशास्त्रियों में आज भी यह विवाद बना हुआ है कि सामाजिक विचार-विनिमय की आवश्यकता ने भाषा को जन्म दिया अथवा भाषा की उत्पत्ति ने समाज निर्माण का पथ प्रशस्त किया। शायद


दोनों ही विचार सही है। पर इतना तो निर्विवाद है कि व्यक्ति समाज से ही भाषा सीखता है और भाषा द्वारा ही वह समाज से सम्बन्ध स्थापित करता है। अतः सामाजिक सहयोग का आधार भाषा ही है।


भाषा की और सामान्य विशेषताएँ


भाषा की प्रकृति सम्बन्धी उपर्युक्त विशेषताओं के साथ-साथ भाषा की कतिपय भी सामान्य विशेषताएँ विचारणीय हैं क्योंकि उनका ध्यान रखकर ही हम भाषा-शिक्षण अधिक तर्कसम्मत, वैज्ञानिक और प्रभावपूर्ण बना सकते हैं। संक्षेप में ये विशेषतएँ निम्नांकित हैं -


1. भाषा अर्जित सम्पत्ति है, पैतृक नहीं - मानव-शिशु माँ के उदर से कोई सीखकर नहीं आता, बल्कि जिन भाषा-भाषियों के बीच उसका जन्म होता है, उसका पालन-पोषण होता है और जो भाषा उसे सुनने को मिलती है, वही भाषा वह सीख लेता है। वह अपने पारिवारिक एवं सामाजिक वातावरण से ही भाषा सीखता है। भाषा सीखने की यह प्रक्रिया इतनी साहजिक और अनायास रूप में होती है कि लोगों को यह भ्रम हो जाता है कि शिशु अपने माता-पिता से उत्तराधिकार रूप में उनकी भाषा भी प्राप्त कर लेता है। पर यह मिथ्या धारणा है। यदि हिंदी भाषी प्रदेश के शिशु को पैदा होने के बाद ही किसी अन्य भाषा-भाषी क्षेत्र में भेज दिया जाए तो वह हिंदी न अर्जित कर उसी अन्य भाषा को ही अर्जित कर लेगा। यदि शिशु को मानव समुदाय से ही अलग रखा जाए तो वह कोई भाषा नहीं सीख पाएगा। अतः बालक जिस समुदाय में रहता है, उस समुदाय की भाषा को ही वह अर्जित करता है।


2. भाषा आद्यन्त सामाजिक प्रक्रिया है- यह लिखा जा चुका है कि भाषा एक सामाजिक क्रिया है। भाषा का जन्म और विकास, अर्जन और प्रयोग सब कुछ समाज सापेक्ष है। यहाँ तक कि हम अकेले में जिस भाषा के माध्यम से सोचते हैं वह भी समाज सापेक्ष है। मनुष्य स्वतः सामाजिक प्राणी है और भाषा उसकी ही कृति है। अतः भाषा पूर्णतः एवं आद्यन्त समाज की ही वस्तु है।


3. भाषा अनुकरणजन्य प्रक्रिया है- भाषा हम अनुकरण द्वारा सीखते हैं। शिशु माता-पिता, भाई-बहन आदि से भाषा का व्यवहार सुन-सुनकर स्वयं बोलने का प्रयास करता है। प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तू के शब्दों में अनुकरण मनुष्य का सबसे बड़ा स्वाभाविक गुण है। भाषा सीखने में मनुष्य इसी गुण का उपयोग करता है।


4. भाषा परम्परागत है, व्यक्ति उसका अर्जन कर सकता है, उत्पन्न नहीं कर सकता - भाषा परम्परा से चली आ रही है। व्यक्ति उस परम्परागत भाषा का ही समाज में रहकर अर्जन करता है। व्यक्ति भाषा को जन्म नहीं दे सकता, पर प्रचलित भाषा को अर्जित कर उसके विकास में योग दे सकता है। भाषा का अस्तित्व तो समाज और परम्परा से ही सम्भव है। 


5. भाषा सतत परिवर्तनशील प्रक्रिया है- अनुकरण द्वारा ही हम भाषा सीखते हैं और यह प्रक्रिया ही


भाषा की परिवर्तनशीलता का या दूसरे शब्दों में विकासशीलता का एक प्रमुख कारण है। अनुकरण की कला में बहुत सिद्ध हस्त होने पर भी किसी वस्तु का पूर्ण एवं अविकृत अनुकरण होना सम्भव नहीं। अनुकृत वस्तु मूल से कुछ न कुछ भिन्न होगी हो। अनुकरणीय व्यक्ति से अनुकरणकर्ता के शारीरिक और मानसिक गठन की भिन्नता ही अनुकरण की क्रिया में भिन्नता ला देती है और भाषा में परिवर्तन होता जाता है। इस अनुकरण के अतिरिक्त प्रयोग में घिसने तथा बाह्य प्रभावों जैसे अन्य भाषा-भाषियों के सम्पर्क एवं उनकी भाषाओं के प्रभाव से भी भाषा में परिवर्तन होता है।


भाषायी परिवर्तन ध्वनियों, शब्दों, पदबन्धों एवं वाक्य-रचनाओं आदि सभी स्तरों पर हो सकते हैं पर यह परिवर्तन इतने परोक्ष रूप से और इतने शनै: शनै: होते हैं कि पता उनका तत्काल नहीं चलता। आज के हिंदी शब्दभण्डार तथा उसकी संरचनाओं की तुलना यदि हम सौ-दो सौ वर्ष पूर्व की हिन्दी से करें तो अपने-आप इस परिवर्तन को देख सकते हैं। भाषा के शिक्षक को भाषा के इन परिवर्तनों तथा नव्यागत प्रयोगों के प्रति सदा रूक रहना चाहिए और शिक्षण के समय यथाप्रसंग उनका परिचय छात्रों को भी ही जागरूक रहना चाहि देना चाहिए।


6. भाषा का कोई अन्तिम रूप नहीं - भाषा की सतत पारवर्तनशीलता ही इस तथ्य का परिचायक है कि उसका कोई अन्तिम रूप नहीं है। जो भाषाएँ बोलचाल में नहीं हैं, जिन्हें हम मातृभाषाएँ कहते हैं उनका तो अन्तिम रूप निश्चित है, पर जीवित भाषाओं परिवर्तन अवश्यम्भावी है। बोलचाल की भाषा यथावत् नहीं रह सकती, उसका विकास होता रहता है। उसकी अभिव्यक्ति के रूप और प्रकार बदलते रहते हैं। जीवंत भाषा का यही लक्षण है।


7. प्रत्येक भाषा की संरचना दुसरी भाषा से भिन्न हाती है- किन्हीं दो भाषाओं की संरचना पूर्णतः एक समान नहीं होती। ध्वनि, शब्द रूप, वाक्य, अर्थ आदि दृष्टियों से किसी एक या अनेक स्तरों पर एक भाषा का ढाँचा दूसरी भाषा के ढाँचे से भिन्न होगा ही। यर भिन्नता ही एक भाषा को दूसरे से पृथक कर देती हे या विशिष्टता प्रदान कर देती है। इस विशिष्टता को न मानने या उस पर ध्यान न देने के कारण ही हम 'अन्य भाषा' सीखते समय अपनी भाषा के रूप आरोपित कर देते हैं। किसी भी भाषा की शिक्षा देते समय शिक्षक को यह मानकर चलना चाहिए कि वह भाषा अन्य भाषाओं से पृथक, अपने में पर्ण एवं स्वतंत्र भाषा है।


8. भाषा स्वभावतः कठिनता से सरलता की ओर प्रवाहित होती है- भाषाओं के विकास पर यदि हम दृष्टिपात करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि भाषा कठिनता से सरलता की ओर प्रवाहित होती है। यह मानव- स्वभाव है कि वह कम से कम प्रयल में अधिक से अधिक उपलब्धि चाहता है और इस स्वभाव के अनुसार वह भाषा के प्रयोग में भी सरलता की ओर उन्मुख रहता है। विकासक्रम में यह सरलता ध्वनियों के उच्चारण, शब्द एवं पद रचना, अर्थव्यंजना आदि सभी क्षेत्रों में परिलक्षित होती है। मुहावरों एवं सूक्तियों का प्रयोग इसी दृष्टि से


प्रचलित होता है जिससे कम से कम शब्दों में अधिकाधिक आशय प्रकट हो सके। 9. भाषा स्थूल से सूक्ष्म एवं अपरिपक्वता से परिपक्वता की ओर विकसित होती है- भाषा अपनी


प्रारम्भिक अवस्था में स्थूल वस्तुओं, घटनाओं आदि की अभिव्यक्ति में ही सक्षम रहती है पर उत्तरोत्तर सूक्ष्म भावों, विचारों एवं अनुभूतियों के प्रकाशन में भी समथ होती जाती है। प्रारम्भिक अवस्था में भाषा का शब्दभण्डार कम रहता है और उसका संरचनात्मक गठन भी शिथिल रहता है। पर जीवनयापन की आवश्यकताओं एवं ज्ञान-संवृद्धि के साथ-साथ शब्द-भण्डार में वृद्धि होती जाती है, भाषा की संरचना भी अधिकाधिक गाठत, नियमित और परिष्कृत होती जाती है और भाषा के प्रयोग में परिपक्वता आती जाती है।


10. भाषा संयोगावस्था से वियोगावस्था की ओर विकसित होती है- आधुनिक भाषाओं के इतिहास एवं क्रमोत्तर विकास के शास्त्रीय अध्ययन से सिद्ध होता है कि भाषा संयोग से वियोग की ओर अग्रसर होती है। संयोगावस्था का अर्थ है शब्दांशों या शब्दों का संयुक्त रूप। उदाहरणतः संस्कृत संयोगावस्था की भाषा है क्योंकि उसमें क्रियाएँ संयुक्त रूप में प्रयुक्त होती हैं और विभक्ति भी शब्द में ही संयुक्त रहती है। हिंदी में विभक्ति शब्द से वियक्त हो गई है। क्रिया का रूप भी वियुक्त अवस्था में है। 'गच्छति' (संयोगावस्था) का रूप हिंदी में 'जाता है' वियोगावस्था का उदाहरण है।


11. प्रत्येक भाषा का एक मानक रूप होता है- भाषा के प्रयोग में हम अनेक विभिन्नताएँ पाते हैं। विशेषतः एक विशाल भूखण्ड में प्रयुक्त होने वाली भाषा के प्रयोग में भिन्नताएँ आ जाना और भी स्वाभाविक है। हिंदी एक विशाल भूखण्ड में प्रचलित भाषा है और इस कारण विभिन्न भागों में उसकी ध्वनियों के उच्चारण, शब्द एवं रूप-रचना तथा अन्तान में ही नहीं, बल्कि वाक्य-संरचनाओं से भी अन्तर पाया जाता है। किन्तु भाषा शिक्षण की दृष्टि से यह विशेष रूप से ध्यान देने की बात है कि भाषा का एक मानक रूप होता है और हमें सदा इस मानक रूप का ही प्रयोग करना चाहिए। स्थानीय उपभाषाओं के प्रयोग के कारण ही उपर्युक्त अन्तर पाया जाता है, अत: हिंदी की शिक्षा प्रदान करते समय उन स्थानीय प्रभावों एवं अन्तरों को दूर करने तथा मानक रूप का प्रयोग करने का आग्रह ही अपेक्षित है।

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